जातिगत राजनीति कर रहीं पार्टियां
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प्रदेश में जाति-धर्म आधारित वोटों की राजनीति काफी समय से चली आ रही है। एक तरफ जहां दुनिया विकास की नयी-नयी ऊंचाइयां छू रही है, वहीं हमारे राजनेता देश में जातियों की कठबैठी हल करने में जुटे हैं। सर्वविदित है कि राजनीति में न स्थायी दुश्मन होता है और न ही दोस्त। राजनीतिक लाभ के लिए कट्ïटर दुश्मनों से भी हाथ मिला लिया जाता है, जिसे भोली-भाली जनता समझने की भूल कर देती है। जाति के जाल में देश के सभी तबके के लोग फंसे हैं। ब्र्राह्मïण, ठाकुर, दलित, मुस्लिम व अल्पसंख्यक मतदाताओं को तरह-तरह के लोकलुभावन वायदों से ललचाया जा रहा है और इसी का परिणाम है कि आरक्षण जैसा जिन्न देश को निगल रहा है। प्रदेश में लगभग 11 फीसदी मतदाता ब्राह्मण समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। 80 संसदीय सीटों में से 25 सीटें ऐसी हैं, जिन्हें सीधे तौर पर ब्राह्मण मतदाता प्रभावित करते हैं। यही कारण है कि आगामी चुनावों में बसपा 20 के करीब सीटों पर ब्राह्मण प्रत्याशी उतार रही है, ताकि ब्राह्मणों को रिझाया जा सके। सत्य यह भी है कि परंपरागत रूप से प्रदेश का ब्राह्मण समुदाय कांग्रेस के पक्ष में रहा है, लेकिन जब प्रदेश में कांग्रेस की कमान ढीली पड़ी तो ब्राह्मण वोट भी बीजेपी के पाले में आने लगे। अब जब राष्ट्रीय स्तर की दो बड़ी पार्टियां, जो सूबे में भी कई बार अपना दमखम दिखा चुकी हैं, उनसे मोहभंग होने कारण ही ब्राह्मण मतदाता सपा या बसपा में अपना विकल्प चुनने लगा है। ऐसा अनुमान है कि भाजपा ने जब से अपनी कमान राजनाथ सिंह के हाथों में दी है, तब से सूबे का ठाकुर समुदाय फिर से भाजपा के पक्ष में खड़ा दिखाई देने लगा है। कारण चाहे जो हो अगर लोकसभा चुनाव में वास्तव में ऐसा होता है और ठाकुर अपना वोट भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में डालते हैं तो इसका सीधा नुकसान समाजवादी पार्टी को होगा।
बहुजन समाज पार्टी की बात की जाए तो इस पार्टी का गठन तो दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों को उच्च जातियों के शोषण से मुक्त करवाकर उन्हें समाज और राजनीति में सम्मानजनक स्थान दिलवाने के लिए हुआ था। बावजूद इसके दलित वर्ग के लोगों पर बसपा सुप्रीमो मायावती ज्यादा दिन तक अपना भरोसा कायम नहीं रख सकीं। उन्हें शायद यह पता चल गया था कि अकेले दलितों का समर्थन और राज्य की ब्राह्मण समेत उच्च जातियों की अनदेखी कर वह चुनाव में जीत हासिल नहीं कर पाएंगी, इसीलिए वर्ष 2007 के विधानसभा चुनावों से पहले मायावती ने ब्राह्मणों को भी लुभाने और उन्हीं के साथ आगे बढऩे का फैसला कर लिया और परिणाम यह हुआ कि वे बहुमत से मुख्यमंत्री बनीं। लेकिन ब्राह्मणों को लुभाने का चुनावी पैंतरा चुनाव में जीत के साथ ही ढीला हो गया और अपने लक्ष्य पर वापस लौटते हुए मायावती ने केवल दलितों पर ही ध्यान देना शुरू कर दिया। प्रोन्नति में आरक्षण का फैसला लेकर उन्होंने दलितों के उत्थान का तो रास्ता साफ कर दिया, लेकिन ब्राह्मण, जिन्होंने बसपा को जीत दिलवाई थी, उनके लिए कोई विशेष कार्य नहीं किये गए, जिससे ब्राह्मण उनसे खफा-खफा रहने लगे। ब्राह्मणों को रिझाने के लिए बसपा प्रदेश के सभी जिलों में ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलन जैसे हथकंडे अपना रही है, वहीं समाजवादी पार्टी ने ब्राह्मणों का वोट हासिल करने के लिए प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन और परशुराम जयंती का सहारा लिया। इसी को देखते हुए उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप कर जाति सम्मेलनों पर अस्थायी तौर पर रोक लगानी पड़ी। बहरहाल जातियों का यह समीकरण बहुत दिलचस्प है लेकिन अंत में कौन पार्टी या दल प्रदेश की जनता को रिझा पाने में सक्षम हो पाता है, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन एक तथ्य जो स्पष्ट तौर पर दिखाई दे रहा है, वह यह है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में सभी दलों को कड़ी और बराबरी की टक्कर मिलने वाली है।
- अभिषेक त्रिपाठी
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